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तं वो॑ धि॒या प॑र॒मया॑ पुरा॒जाम॒जर॒मिन्द्र॑म॒भ्य॑नूष्य॒र्कैः। ब्रह्मा॑ च॒ गिरो॑ दधि॒रे सम॑स्मिन्म॒हांश्च॒ स्तोमो॒ अधि॑ वर्ध॒दिन्द्रे॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ vo dhiyā paramayā purājām ajaram indram abhy anūṣy arkaiḥ | brahmā ca giro dadhire sam asmin mahām̐ś ca stomo adhi vardhad indre ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। वः॒। धि॒या। प॒र॒मया॑। पु॒रा॒ऽजाम्। अ॒जर॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒भि। अ॒नू॒षि॒। अ॒र्कैः। ब्रह्म॑। च॒। गिरः॑। द॒धि॒रे। सम्। अ॒स्मि॒न्। म॒हान्। च॒। स्तोमः॑। अधि॑। व॒र्ध॒त्। इन्द्रे॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:38» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे तुम (ब्रह्मा) वेद की और (वः) आप लोगों की (परमया) अत्यन्त उत्तम (धिया) बुद्धि वा कर्म से (तम्) उस (पुराजाम्) पहिले प्रकट हुए (अजरम्) जीर्ण होने से रहित (इन्द्रम्) बिजुली की भी प्रशंसा करो, वैसे (अर्कैः) सूर्य्यों से मैं इसकी (अभि, अनूषि) स्तुति करता हूँ और जैसे (च) भी (अस्मिन्) इस (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य में (च) भी (महान्) बड़ा (स्तोमः) प्रशंसा करने योग्य गुण कर्म्म, और स्वभाववाला (अधि, वर्धत्) बढ़ता है और जैसे आप विद्वानों की (गिरः) वेदवाणियों को (सम्) (दधिरे) उत्तम प्रकार धारण करते हैं, वैसे हम लोग अनुष्ठान करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के उपदेश और पुरुषार्थ से बिजुली आदि की विद्यायुक्त बुद्धि की स्वीकार करते हैं, वे यहाँ स्तुति करने योग्य होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा यूयं ब्रह्मा वः परमया धिया तं पुराजामजरमिन्द्रञ्च प्रशंसत तथाऽर्कैरहमेनमभ्यनूषि। यथाऽस्मिन्निन्द्रे च महाँ स्तोमोऽधि वर्धद्यथा च भवन्तो विदुषां य गिरः संदधिरे तथा वयमनुष्ठेयम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (वः) युष्माकम् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (परमया) अत्युत्कृष्टयाऽत्युत्कृष्टेन वा (पुराजाम्) पूर्वजातम् (अजरम्) हानिरहितम् (इन्द्रम्) विद्युतम् (अभि) (अनूषि) स्तौमि (अर्कैः) सूर्यैः (ब्रह्मा) वेदम् (च) (गिरः) वेदवाचः (दधिरे) दधति (सम्) (अस्मिन्) (महान्) (च) (स्तोमः) श्लाघ्यगुणकर्मस्वभावः (अधि) (वर्धत्) वर्धते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (इन्द्रे) परमैश्वर्ये ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वदुपदेशपुरुषार्थाभ्यां विद्युदादिविद्यायुक्तां प्रज्ञां स्वीकुर्वन्ति तेऽत्र श्लाघनीया भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांचा उपदेश व पुरुषार्थ याद्वारे विद्युत इत्यादीच्या विद्यायुक्त बुद्धीचा स्वीकार करतात ती स्तुती करण्यायोग्य असतात. ॥ ३ ॥